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Sunday, November 29, 2009

"दलितों की कब्रगाह"

अरे यार फैज़ तुमने आज मुकुल श्रीवास्तव जी की बीबीसी पोस्ट पढ़ी क्या (मेरे कैमरे ने मुझसे पुछा )...नही यार कुछ ख़ास है क्या उसमे । हाँ ख़ास ही है हम जौनपुर के कितने करीब है पर नही जानते और उन्हूने इतनी दूर से पता लगा लिया । अरे क्या ये बातें गोल गोल घुमा रहा है सीधे सीधे बता बात क्या है ।
जानता है फैज़ जौनपुर जिले के कुल्हनामऊ गाँव में कई सदियों से दलितों को उनके मरने के बाद जलाने के बजाये गाडा जा रहा है । अगर मुकुल जी की जुबानी कहूं तो कुल्हनामऊ में ग़रीबी के कारण दलितों का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज़ों के अनुसार न कर उन्हें ज़मीन में दफ़नाया जाता है ।
मृतकों को दफ़नाने के लिए गाँव में ही एक कब्रिस्तान बना हुआ है । जहाँ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी दलितों के उत्थान के लिए एडी चोटी का ज़ोर लगा रही है । वही उनके एक सूबे में ग़रीबी के कारण दलितों का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज़ों के अनुसार न कर उन्हें ज़मीन में दफ़नाया जाता है । क्या गरीबी इतनी हावी है हमारे देश में की हम अपनी रीति रिवाजों के अनुसार अन्तिम संस्कार भी नही कर सकते । मुकुल जी के अनुसार गाँव के 80 वर्षीय बुज़ुर्ग मुरली बताते हैं कि अंग्रेजों के ज़माने से यहाँ मृतकों को दफ़नाया जाता रहा है। पहले यहाँ सिर्फ साधुओं को ही दफ़नाया जाता था लेकिन बाद में गाँव के ग़रीब लोग अपने संबंधियों को यहाँ दफ़नाने लग गए . अंतिम संस्कार के लिए शवों को दफ़ना देना एक सस्ता विकल्प है. मुरली के परिवार के सभी रिश्तेदार गाँव के इसी क़ब्रिस्तान में दफ़न हैं.वो बताते हैं कि एक मृतक के अंतिम संस्कार में कम से कम दो सौ किलोग्राम लकड़ी लगती है और बाकी के क्रिया कर्म के पैसे अलग। उनकी ख़ुद की तबीयत खराब है। पैसे की तंगी के कारण वे अपना इलाज़ नहीं करवा पा रहे हैं .
लेकिन मुरली यह कहना नहीं भूलते, "अगर अच्छा खाना मिले तो कोई ख़राब खाना नहीं खाएगा. अगर मेरा अंतिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज़ों के अनुसार हो तो मैं अपने आपको धन्य मानूँगा."
."कहाँ गया मुख्यमंत्री जी का वादा हम दलितों का उठान करेंगे क्या सिर्फ़ उन्हें आवास बनाकर देने से उनकी गरीबी दूर हो जाएगी । क्यों नही नरेगा को सुचारू रूप से लागो किया जाता की लूग अपने दह संस्कार के लिए लकडियाँ खरीद ले , क्यों नही समाज के ठेकेदार इस बात को समाज के सामने लाये फ़िर वही हुआ जो हमेशा होता है एक ज़िम्मेदार पत्रकार ने समाज के एक कटु सच को उजागर किया । दोस्तों ये मौका है इस vishaye पर charchaa न कर इस पर चिंतन करने का warna कल सिर्फ़ दलित ही नही...................

Monday, November 16, 2009

२२ जनवरी २००९ से १५ नवम्बर २००९ तक .......

ये क्या हुआ ......ये क्या हुआ ............ये क्या हुआ .........

अरे यार फैज़ आज क्या हुआ जो तुम ये गाना गा रहे हो (मेरे कैमरे ने मुझसे पूछा )॥अरे तुम को नही मालूम । तो सुनो राजनीति का बहुप्र्तिछित फैसला आज आ गया जिसका समाजवादी पार्टी के विपक्छी दल को बेसब्री से इंतज़ार था । .....अरे फैज़ कुछ विस्तार से बताओगे आख़िर हुआ क्या ??? अरे होना क्या था आज समाजवादी पार्टी के राष्ट्रिय महासचिव राजबीर सिंह ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया । जिसके साथ ही मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह की १० महीने की दोस्ती पर फुल स्टाप लग गया । अब ये दोनों एक मंच पर गलबहियाँ डाले नही नज़र आयेंगे । मुलायमसिंह ना तो कल्याण सिंह जिंदाबाद के नारे लगायेंगे और नाही कल्याण सिंह उन्हें आपने मित्र बताएँगे । अब तो आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू होगा वो उन्हें दोषी कहेंगे और वो उन्हें ।ये बात किसी से नही छुपी की समाजवादी पार्टी के एक समुदाये विशेष के वोटो पर कल्याण सिंह के आने से विपरीत प्रभाव पड़ा और पार्टी की यह दशा हुई, जिसका सीधा उदाह्रद फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम सिंह की पुत्रवधू की हार है साथ ही कही भी उसके प्रत्याशी का न जीत पाना ,और लोक सभा चुनावों में सिर्फ़ २३ सीते पाना वो भी सत्ता में रहते हुए । पर कल्याण सिंह जी तो अलग ही राग अलाप रहे है की अगर मे और मेरा बेटा न रहे होते तो उन्हें सिर्फ़ १४ सीटों से संतोष करना पड़ता ९ सीटों पर तो मैंने ही जीत दिलाई है । और तो और हम ख़ुद नही गए थे उनके यहाँ पर वो ख़ुद आए थे हमारे पास ......

मई तो यहाँ यही कहूँगा की "चूहे ने फसल ख़राब कर दी"क्योंकि समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंध तो लग ही चुकी है .....अब मुलायम सिंह जी क्या करेंगे.........

Monday, November 9, 2009

"भगत सिंह होने का मतलब"


"जालिम फलक ने लाख मिटने की फ़िक्र की ,हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गई "

"मै एलान करता हूँ की मै आतंकवादी नही हूँ ,और अपने क्रन्तिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर शायद कभी नही था और मै मानता हूँ की उन तरीकों से हम कुछ हासिल नही कर सकते ".......भगत सिंह का ये एलान बहुत कम ही लोग जानते होंगे । निसंदेह भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के सर्वाधिक लोकप्रिय शहीदों में से एक है । हलाँकि अधिकतर उन्हें गोली चलने वाला युवा राष्ट्रवादी की रोमांटिक छवि से परे नही देख पाते थे । इसकी वजह शायद यह है की उनकी यही छवि औप्नीवेशक दौर के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज की गई । लोग भगत सिंह को ऐसे शख्स के रूप में देखते थे , जो अपने हिंसात्मक कारनामो से ब्रिटिश शासन को आतंकित कर देता था । उनकी ज़बरदस्त हिम्मत ने उन्हें एक प्रतिमान बना दिया । भगत सिंह को आज भी प्यार और श्रधा से देखा जाता है ,लेकिन क्या हमें उनकी राजनीति और विचारों के बारे में पता है ? और क्या उनके हिंसा व आतंक में विश्वास के शुरूआती नज़रिए के बारे में पता है ?(जो मौजोदा आतंकवादी हिंसा से एकदम अलग चीज़ थी ) जिसे उन्हूने शीग्र ही एक ऐसे क्रन्तिकारी दृष्टिकोण में बदल लिया जो स्वाधीन भारत को एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी और समतावादी समाज में बदलने से वास्ता रखता था । भगत सिंह को जनता की तरफ़ से इस तरह का मुक्त समर्थन क्यों मिला ? जबकि उसके पास पहले से ही नायकों की कमी नही थी ? एस सवाल का जवाब देना आसान नही है । जब देश के सबसे बड़े नेताओं का तात्कालिक लक्छ्य स्वतंत्रता प्राप्ति था उस समय भगत सिंह जो बमुश्किल अपनी किशोरावस्था से बाहर आए थे ,उनके पास इस तात्कालिक लक्छ्य से परे देखने की दूर दृष्टि थी । उनका दृष्टिकोण एक वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था और उनका अल्पकालिक जीवन इसी आदर्श को ही समर्पित रहा । भगत सिंह और उनके मित्र दो मूलभूत मुदों को लेकर सजग थे जो तात्कालिक राष्ट्रिय त्तथा अंतर्राष्ट्रीय परिपेछ्य में प्रासंगिक थे । पहला --- बढाती हुई धार्मिक व सांस्कृतिक वैमनस्यता और दूसरा समाजवादी आधार पर समाज का गठन । भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों ने क्रांतिकारी पार्टी के प्रमुख लक्छ्यों में से एक बटोर समाजवाद लाने की ज़रुरत महसूस की ।सितम्बर १९२८ में दिल्ली स्थित फिरोज़ शाह कोटला के खण्डहरों में महत्वपुर्ण क्रांतिकारियों की बैठक में इस पर विचार विमर्श के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन ( H R A ) में सोशलिसत शब्द जोड़कर HSRA बना दिया गया । भगत सिंह अपने साथियों को यह समझाने में सक्छ्म थे की भारत की मुक्ति सिर्फ़ राजनितिक नहीं बल्कि आर्थिक आज़ादी में है। समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबधता ८ अप्रैल १९२९ को उनके दुआरा असेम्बली में बम्ब फेंकने की कारवाही में भी प्रकट हुई । भगत सिंह दरअसल १९२० के दौर में सम्प्रदाइकता के बड़ते खतरे के प्रति सजग हुए । उसी dashak में RSS तबलीगी जमात का उदय हुआ । उन्होंने साम्प्रदायिकतावादी प्रतिस्पर्ध को बढावा देने की नीति पर सवाल किए । एक राजनितिक विचारक के रूप में वे तब परिपक्व हुए जब वो अपनी शहादत से पहले दो साल जेल में गुजारे । उनकी जेल में लिखी डायरी पोरी स्पष्टता से उनकी राजनितिक बनावट के विकास को दिखाती है । जेल में ही उन्होंने ने अपना विक्यात लिख " मे नास्तिक क्यों हूँ " लिखा । यह लिख तार्किकता की दृढ पछ्धार्ता के साथ अंधविश्वास का पुरजोर खंडन करता है । भगत सिंह मानते थे की धर्म शोषकों के हांथो का औजार है , जिसका इस्तेमाल वो जनता में इश्वर का भय बनाये रखकर उनका शोषद करने के लिए करते है । HSRA के नेताओं का वैज्ञानिक नज़रिया समये के साथ विकसित हुआ और उनमे से अधिकतर समाजवादी आदर्श या साम्यवाद के करीब आए । वे व्यक्तिगत करावाहियों के बजाये आन्दोलनों में भरोसा रखते थे । भगत सिंह उस संघर्ष को लेकर एकदम स्पष्ट राय रखते थे , उन्होंने अपने आखिरी दिनों में कहा था की ..........

" भारत में यह संघर्ष तब तक जारी रहेगाजब तक मुट्ठी भर शोषक आम जनता के श्रम का शोषद करते रहेंगे । यह कोई मायने नही रखता की ये शोषक खालिस ब्रिटिश या भारतीय दोनों सम्मिलीत रूप से है या विशुद्ध रूप से भारतीय है ।"

तो डालिए रौशनी उनके द्बारा सोचे गए शासन के वैकल्पिक ढांचे पर , जिसमे आतंक या हिंसा नही बल्कि सामजिक और आर्थिक न्याय सर्वोपरी होगा ।