INDIA Blogger

Monday, May 17, 2010

"नक्सलियों का लाल सलाम "

यार फैज़ देखा दंतेवाडा में एक बार फिर खून की होली खिली नक्सलियों ने , पर फिर भी आँखे नहीं खुलेगी सरकार की , कोई समुचित उपाय नहीं किया जायेगा बस कुछ दिनों तक ओछी राजनीती होगी इस मुद्दे पर और फिर सबकुछ शांतकुछ दिनों के बड फिर होगा कोई बड़ा नक्सली हादसा और फिर निकल आएगा बोतल में से जिनबाहर
आखिर इन सब चीजों से नुक्सान किसका है मेरा कैमरा जो कह रहा है क्या उस पर दयां नहीं देना चाहिए आखिरमर कौन रहा है , बेगुनाह जनता ही लेकिन कौन समझाए इन्हें ये तो सिर्फ सहायता राशी देकर अपना पिंडछुड़ाने की जुगत में लगे रहते है की कितना अधिक दे कर अपना दामन साफ़ कर ले।
कोई उनसे जा कर पूछे जिन्हूने अपना सुहाग अपना पिता अपना बेटा खोया है उनके दिल पर क्या गुज़रती है क्याचाँद कागज़ टुकड़े उनका दर्द कम कर देंगे नहीं ???

तो फिर क्यों नहीं नक्सलियों के बारे में कुछ नहीं सोचा जाता क्या जवाहर लाल नेहरु ने आदिवासियों के लिए जोयोजनायेशुरू की थी जिनमे रिहंद बाँध भी था क्या वो उससे संतुष्ट नहीं हैक्या उन्हें कुछ और चाहिए लेकिनविपदा ये है की कौन पूछे उनसे सब तो डरते है हम क्यों ऐसे लोगों को पदासीन करते है जो डरपोक होते है सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए कुर्सी पर बैठते है नाकि आम जनता के बारे में सोचने के लिए ......

क्या होगा आने वाले वक़्त में हमारे देश का सोचिये वरना हर हिन्दुस्तानी नक्सलियों की रह पर चल पड़ेगा .......

4 comments:

Unknown said...

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

kunwarji's said...

बहुत उम्दा ख्याल आपके!थोड़ी सी वर्तनी की समस्या है जो आप जल्द ही ख़त्म कर सकते हो!शुभकामनाये स्वीकार करे....

कुंवर जी,

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Jnu is the exis of this evil.

डॉ. मनोज मिश्र said...

हिंसा को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता.